आज़ादी के आंदोलन में नारों की भूमिका

भारत की आज़ादी की कहानी केवल तलवारों की झंकार या राजनीतिक रणनीतियों की कथा नहीं है, यह शब्दों की लड़ाई, भावनाओं की मशाल और सांस्कृतिक चेतना के उद्घोष की भी कहानी है। इस क्रांतिकारी यात्रा में नारों ने ऐसा कार्य किया जो तोपें नहीं कर पाईं — उन्होंने जन-मन में चिंगारी जगाई, आत्मबल भरा और पूरे देश को एकता की डोर में बाँधा।
नारे: जन-क्रांति की आवाज़
नारा किसी आंदोलन का केवल नाद नहीं होता, वह एक विचारधारा, एक सपना, एक चेतावनी और एक चुनौती होता है। आज़ादी के आंदोलन में ऐसे दर्जनों नारे उभरे, जिन्होंने न केवल ब्रिटिश सत्ता की नींव हिला दी, बल्कि भारत की आत्मा को भी स्वर दिया।
“वंदे मातरम्” – मातृभूमि के प्रति नमन का भाव।
“स्वराज मेरा जन्मसिद्ध अधिकार है” – तिलक का आत्मविश्वासी उद्घोष।
“अंग्रेज़ों भारत छोड़ो” – गांधीजी के नेतृत्व में संपूर्ण भारत की हुंकार।
“इनक़लाब ज़िंदाबाद” – भगतसिंह की क्रांतिकारी पुकार।
“जय हिंद” – सुभाषचंद्र बोस की राष्ट्रवादी प्रेरणा।
इन नारों ने आंदोलन को केवल राजनीतिक नहीं, बल्कि आध्यात्मिक और नैतिक आधार प्रदान किया।
नारों की सबसे बड़ी शक्ति यही रही कि उन्होंने सामान्य जन को असाधारण बना दिया। ये नारे किसान, मजदूर, महिलाएं, बच्चे, सभी की ज़बान पर चढ़ गए। गाँवों की गलियों से लेकर नगरों की सड़कों तक हर जगह जनता उन्हें गाती, दोहराती, जीती और लड़ती थी।
गाँवों की चौपालों, मेलों, स्कूलों, और मंदिरों में नारे प्रेरक गीतों और लोक भाषाओं में ढलकर गूंजते थे। बुंदेलखंड में आल्हा की तर्ज पर, बंगाल में बाउल गीतों में, और छत्तीसगढ़ में सुवा गीतों की धुन पर लोग नारों को गाते थे।
क्रांतिकारियों का शब्द-शस्त्र
भगत सिंह, चंद्रशेखर आज़ाद, सुभाष बोस जैसे क्रांतिकारी जानते थे कि शब्द बंदूक से अधिक मारक हो सकते हैं। जेलों की दीवारों के बीच भी उनके नारे देश के युवा हृदयों को आंदोलित करते रहे। “सरफरोशी की तमन्ना अब हमारे दिल में है…” जैसे नारे कविता और क्रांति का संगम बन गए।
नारों से बनी एकता और आत्मबल
ब्रिटिश शासन की सबसे बड़ी चाल “फूट डालो और राज करो” थी। लेकिन नारे भारत की भाषाई, जातीय, क्षेत्रीय सीमाओं को तोड़कर एक साझा पहचान बना रहे थे। चाहे वह बंगाल हो या पंजाब, बिहार हो या महाराष्ट्र — हर स्थान का क्रांतिकारी उन नारों को अपने हृदय से लगाता था
नारे आज भी क्यों ज़रूरी हैं?
आज के भारत में भी नारे गूंजते हैं – कभी आंदोलनों में, कभी कविताओं में, कभी कक्षा में और कभी मन के भीतर। वे हमें याद दिलाते हैं कि आज़ादी केवल एक तारीख नहीं, बल्कि सतत प्रयास और सजगता की भावना है। जब भी लोकतंत्र पर संकट आता है, अभिव्यक्ति पर अंकुश लगता है, तब वही पुराने नारे फिर से अर्थवान हो उठते हैं।
इस प्रकार देखा जाए तो नारे भारतीय स्वतंत्रता आंदोलन के अदृश्य नायक थे। उन्होंने विचारों को जन-जागरण में बदला, डर को साहस में और मौन को हुंकार में। आज़ादी का वह महान संघर्ष इन नारों के बिना अधूरा होता। वे केवल वाक्य नहीं थे, बल्कि भारत की आत्मा की आवाज़ थे, और रहेंगे।
डॉ सुधीर शर्मा
अध्यक्ष, हिंदी एवं पत्रकारिता विभाग, कल्याण स्नातकोत्तर महाविद्यालय भिलाई छत्तीसगढ़