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जुबान नहीं फिसली है, असल बात जुबान पर आ गई है (आलेख : सिद्धार्थ रामू)

मैंने लिखा था, वे गांधी-नेहरू के बाद अंतिम हमला आंबेडकर पर ही बोलेंगे, आखिर अमित शाह ने आंबेडकर पर हमला बोल ही दिया

भारत को हिंदू राष्ट्र में तब्दील करने के मार्ग में तीन व्यक्तित्व हिंदू राष्ट्रवादियों के मार्ग में सबसे बड़ी बाधाएं हैं : गांधी, नेहरू और आंबेडकर। गांधी यदि हिंदू राष्ट्रवादियों के ह्रदय में कांटे की तरह चुभें हुए हैं, तो नेहरू खंजर हैं, लेकिन आंबेडकर हिंदू राष्ट्रवादियों के सीने में इस पार से उस पार तक तलवार की तरह उतरे हुए हैं। अभी फिलहाल हिंदू राष्ट्र की परियोजना को साकार करने में लगे संगठन, संस्थाएं और व्यक्ति आंबेडकर पर सीधा हमला करने से बच रहे थे, लेकिन उन्हें हिंदू राष्ट्र के अपने स्वप्न को पूरी तरह साकार करने लिए, आंबेडकर को अपने मार्ग से हटाना ही पड़ेगा, जो हिंदुत्व का प्रतिपक्ष और संविधान का पर्याय बनकर चीन की दीवार की तरह हिंदू राष्ट्र के मार्ग में खड़े हैं। इस सच से हिंदू राष्ट्रवादी बखूबी परिचित हैं। आखिर अमित शाह ने आज आंबेडकर पर हमला बोलकर इसकी शुरूआत कर ही दी।

गांधी-नेहरू हिंदू राष्ट्र की परियोजना के लिए अलग-अलग मात्रा और अलग-अलग रूपों में चुनौती तो हैं, लेकिन जिस व्यक्ति ने हिंदू राष्ट्र की बुनियादी पर सबसे प्राणघातक हमला बोला है, उसकी रीढ़ को निशाना बनाया और जिस हिंदू धर्म पर हिंदू राष्ट्र की अवधारणा आधारित है, उसे नेस्तनाबूद करने के लिए पूरा जीवन खपा दिया, उस व्यक्ति का नाम डॉ. आंबेडकर है। वे ब्राह्मण धर्म, सनातन धर्म और हिंदू धर्म को एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखते थे।

नेहरू यह समझने में पूरी तरह असफल रहे कि हिंदू धर्म का मूल तत्व वर्ण-व्यवस्था है, गांधी यह समझते थे कि लेकिन जीवन के अंत तक वर्ण-व्यवस्था के हिमायती बने रहे। गांधी-नेहरू दोनों यह नहीं समझ पाए कि हिंदू धर्म कोई धर्म नहीं, बल्कि एक सामाजिक व्यवस्था है, जिसका मूल उद्देश्य सवर्ण हिंदू मर्दों (द्विज मर्दों) के राजनीतिक, सामाजिक, आर्थिक, धार्मिक और सांस्कृतिक वर्चस्व को पिछड़े-दलितों और महिलाओं पर कायम रखना है। जिस व्यक्ति ने यह समझा, उस व्यक्ति का नाम आंबेडकर है।

यह सच है कि हिन्दू राष्ट्रवाद का महत्वपूर्ण तत्व मुसलमानों और ईसाईयों के प्रति घृणा है। परन्तु यह घृणा, हिन्दू राष्ट्रवाद की विचारधारा की केवल ऊपरी सतह है। सच यह है कि हिंदू राष्ट्र जितना मुसलमानों या अन्य धार्मिक अल्पसंख्यकों के लिए खतरा है, उससे अधिक वह हिंदू धर्म का हिस्सा कही जानी वाली महिलाओं, अति पिछड़ों और दलितों के लिए भी खतरनाक है, जिन्हें हिंदू धर्म दोयम दर्जे का ठहराता है। इस तथ्य को रेखांकित करते हुए आंबेडकर ने लिखा है कि ‘‘हिन्दू धर्म एक ऐसी राजनैतिक विचारधारा है, जो पूर्णतः लोकतंत्र-विरोधी है और जिसका चरित्र फासीवाद और/या नाजी विचारधारा जैसा ही है। अगर हिन्दू धर्म को खुली छूट मिल जाए – और हिन्दुओं के बहुसंख्यक होने का यही अर्थ है – तो वह उन लोगों को आगे बढ़ने ही नहीं देगा, जो हिन्दू नहीं हैं या हिन्दू धर्म के विरोधी हैं। यह केवल मुसलमानों का दृष्टिकोण नहीं है। यह दलित वर्गों और गैर-ब्राह्मणों का दृष्टिकोण भी है” (सोर्स मटियरल ऑन डॉ. आंबेडकर, खण्ड 1, पृष्ठ 241, महाराष्ट्र शासन प्रकाशन)। गांधी-नेहरू या किसी अन्य ने खुले शब्दों में हिंदुओं और हिंदू धर्म के प्रति घृणा नहीं प्रकट किया है। आंबेडकर हिंदुओं और हिंदू धर्म के प्रति खुलेआम घृणा प्रकट करते हैं और इस घृणा का कारण बताते हुए लिखते हैं “मैं हिंदुओं और हिंदू धर्म से इसलिए घृणा करता हूं, उसे तिरस्कृत करता हूं क्योंकि मैं आश्वस्त हूं कि वह गलत आदर्शों को पोषित करता है और गलत सामाजिक जीवन जीता है। मेरा हिंदुओं और हिंदू धर्म से मतभेद उनके सामाजिक आचार में केवल कमियों को लेकर नहीं हैं। झगड़ा ज्यादातर सिद्धांतों को लेकर, आदर्शों को लेकर है। (भीमराव आंबेडकर, जातिभेद का विनाश पृ. 112)।

डॉ.आंबेडकर साफ शब्दों में कहते हैं कि हिन्दू धर्म के प्रति उनकी घृणा का सबसे बड़ा कारण जाति है, उनका मानना था कि हिन्दू धर्म का प्राण-तत्त्व जाति है और इन हिन्दुओं ने अपने इस जाति के जहर को सिखों, मुसलमानों और क्रिश्चियनों में भी फैला दिया है। वे लिखते हैं कि ‘‘इसमें कोई सन्देह नहीं कि जाति आधारभूत रूप से हिन्दुओं का प्राण है। लेकिन हिन्दुओं ने सारा वातावरण गन्दा कर दिया है और सिख, मुस्लिम और क्रिश्चियन सभी इससे पीड़ित हैं।’’ स्पष्ट है कि भारतीय उपहाद्वीप में मुसलमानों और ईसाईयों के बीच जाति की उपस्थिति के लिए वे हिंदू धर्म को जिम्मेदार मानते हैं।

वे हिंदू धर्म का पालन करने वाले हिंदुओं को मानसिक तौर पर बीमार कहते थे। ‘जाति का विनाश’ किताब का उद्देश्य बताते हुए उन्होंने लिखा है कि ‘‘मैं हिन्दुओं को यह अहसास कराना चाहता हूं कि वे भारत के बीमार लोग हैं, और उनकी बीमारी अन्य भारतीयों के स्वास्थ्य और खुशी के लिए खतरा है।’’आंबेडकर हिंदुओं को आदिम कबिलाई मानसिकता के बर्बर लोगों की श्रेणी में रखते हैं। ‘‘हिन्दुओं की पूरी की पूरी आचार-नीति जंगली कबीलों की नीति की भांति संकुचित एवं दूषित है, जिसमें सही या गलत, अच्छा या बुरा, बस अपने जाति बन्धु को ही मान्यता है। इनमें सद्गुणों का पक्ष लेने तथा दुर्गुणों के तिरस्कार की कोई परवाह न होकर, जाति का पक्ष लेने या उसकी अपेक्षा का प्रश्न सर्वोपरि रहता है।” डॉ. आंबेडकर को हिन्दू धर्म में अच्छाई नाम की कोई चीज नहीं दिखती थी, क्योंकि इसमें मनुष्यता या मानवता के लिए कोई जगह नहीं है। अपनी किताब ‘जाति का विनाश’ में उन्होंने दो टूक लिखा है कि ‘हिन्दू जिसे धर्म कहते हैं, वह कुछ और नहीं, आदर्शों और प्रतिबन्धों की भीड़ है। हिन्दू-धर्म वेदों व स्मृतियों, यज्ञ-कर्म, सामाजिक शिष्टाचार, राजनीतिक व्यवहार तथा शुद्धता के नियमों जैसे अनेक विषयों की खिचड़ी संग्रह मात्र है। हिन्दुओं का धर्म बस आदेशों और निषेधों की संहिता के रूप में ही मिलता है, और वास्तविक धर्म, जिसमें आध्यात्मिक सिद्धान्तों का विवेचन हो, जो वास्तव में सार्वजनीन और विश्व के सभी समुदायों के लिए हर काम में उपयोगी हो, हिन्दुओं में पाया ही नहीं जाता और यदि कुछ थोड़े से सिद्धान्त पाये भी जाते हैं, तो हिन्दुओं के जीवन में उनकी कोई महत्वपूर्ण भूमिका नहीं पायी जाती। हिन्दुओं का धर्म ‘‘आदेशों और निषेधों” का ही धर्म है। वे हिन्दुओं की पूरी व्यवस्था को ही घृणा के योग्य मानते हैं।

उन्होंने लिखा कि : ‘‘इस प्रकार यह पूरी व्यवस्था ही अत्यन्त घृणास्पद है, हिन्दुओं का पुरोहित वर्ग (ब्राह्मण) एक ऐसा परजीवी कीड़ा है, जिसे विधाता ने जनता का मानसिक और चारित्रिक शोषण करने के लिए पैदा किया है … ब्राह्मणवाद के जहर ने हिन्दू-समाज को बर्बाद किया है।” (जाति का विनाश)।हिंदू राष्ट्र से आंबेडकर इस कदर घृणा करते थे कि उन्होंने हिंदू राष्ट्र के निर्माण को किसी भी कीमत पर रोकने की बात की। इस संदर्भ में उन्होंने लिखा, अगर हिन्दू राज हकीकत बनता है, तब वह इस मुल्क के लिए सबसे बड़ा अभिशाप होगा। हिन्दू कुछ भी कहें, हिन्दू धर्म स्वतन्त्रता, समता और बन्धुता के लिए खतरा है। इन पैमानों पर वह लोकतन्त्र के साथ मेल नहीं खाता है।

हिन्दू राज को किसी भी कीमत पर रोका जाना चाहिए।” (पाकिस्तान ऑर पार्टीशन ऑफ इण्डिया, पृ.338) हिंदू धर्म की यह समझ डॉ. आंबेडकर को गांधी-नेहरू से गुणात्मक तौर पर भिन्न बना देती है और हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए आंबेडकर को सबसे अधिक खतरनाक। आंबेडकर वर्ण-जाति व्यवस्था के पोषक हिंदू धर्मग्रंथों को डायनामाइट से उड़ाने की तक की बात करते हैं। उन्होंने ‘हिंदू धर्म की पहेलियां’ और ‘प्राचीन भारत में क्रांति और प्रतिक्रांति’ और ‘जाति का विनाश’ जैसी किताबें लिखकर हिंदू धर्म दर्शन, विचारधारा, ईश्वरों, देवी-देवताओं, हिंदू धर्म की किताबों, आदर्शों-मूल्यों, जीवन-पद्धति और जीवन-दृष्टि की धज्जियां उड़ा दी हैं। वेदों से लेकर आधुनिक युग तक हिंदू धर्म के पक्ष में दिए गए तर्कों और हिंदू धर्म के पैरोकारों के हर तर्क का उन्होंने ठोस और सटीक जवाब दिया है, ‘जाति का विनाश’ किताब इसका सबसे बड़ा उदाहरण है। एक शब्द में कहें तो भारत के अब तक इतिहास में सनातन धर्म और ब्राह्मण धर्म के पर्याय हिंदू धर्म या ब्राह्मणवाद पर इतना मर्मांतक और निर्णायक हमला किसी ने नहीं बोला है, जितना आंबेडकर ने बोला है।

हिंदू धर्म पर दार्शनिक-वैचारिक हमले के साथ आंबेडकर ने संविधान के रूप में हिंदू राष्ट्र के मार्ग में एक पहाड़ खड़ा कर दिया है, इस पहाड़ को रास्ते से हटाए बिना हिंदू राष्ट्र स्थायी और मुकम्मल शक्ल नहीं ले सकता है और मंजिल तक नहीं पहुंच सकता, क्योंकि संविधान हर वयस्क नागरिक को वोट का अधिकार देता है। पांच साल में चुनाव और सरकार बदलने का भी उन्हें अधिकार देता है। जनता इस अधिकार का इस्तेमाल करके हिंदू राष्ट्र के पैरोकारों को सत्ता से हटा सकती है। संसद में ऐसी सरकार को बहुमत दे सकती है, जो हिंदू राष्ट्र के खिलाफ हो। इसका खतरा हमेशा हिंदुत्वादियों के सामने मंडराता रहेगा। हालांकि इस संविधान के साथ लगातार हिंदू राष्ट्रवादी छेड़छाड़ कर रहे हैं, उसकी मूल भावना को रौंद रहे हैं, उसकी मनमानी व्याख्या कर रहे हैं, उसका हिंदू राष्ट्रवाद की परियोजना के लिए इस्तेमाल कर रहे हैं और अब तो उसे बदलने की खुलेआम बातें भी करने लगे हैं। फिर भी संविधान उनके मार्ग में बड़ा रोड़ा बना हुआ है।

हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए संविधान को पूरी तरह बदलना इसलिए भी जोखिम भरा काम है, क्योंकि दलितों-पिछड़े और आदिवासियों का एक बड़ा हिस्सा संविधान और आंबेडकर को एक दूसरे के पर्याय के रूप में देखता है। संविधान से छेड़-छाड़ या संविधान बदलने की बात उसे आंबेडकर के विचारों-सपनों से छेड़-छाड़ लगती है। फिर भी हिंदू धर्म के लिए इतने खतरनाक और हिंदू राष्ट्र के मार्ग में सबसे बड़े अवरोध आंबेडकर पर हमला बोले बिना भारत को हिंदू राष्ट्र बनाने के स्वप्न को हिंदू राष्ट्रवादी साकार नहीं कर सकते। वे आंबेडकर पर हमला बोलेंगे, लेकिन गांधी और नेहरू को पूरी तरह निपटाने के बाद। वे अंतिम हमला आंबेडकर पर ही बोलेंगे।प्रश्न यह है कि हिंदू राष्ट्र के लिए सबसे बड़ी बाधा आंबेडकर और उनकी वैचारिकी पर हमला करने से हिंदुत्ववादी क्यों बच रहे हैं और गांधी, नेहरू पर आक्रामक तरीके से हमलावार क्यों हैं?इसका पहला कारण यह है कि देश में गांधी-नेहरू के समर्थक ( वोटर) बहुत कम संख्या में बचे हैं। जो अपरकॉस्ट गांधी और नेहरू का मजबूत समर्थक और पैरोकार था, उसका बहुलांश हिस्सा हिंदुत्वादियों के साथ पूरी तरह खड़ा हो गया है। यह अपरकॉस्ट आजादी के दौरान गांधी और आजादी के बाद नेहरू को अपना सबसे बड़ा नेता, हितैषी और पैरोकार मानता था। इन दोनों ने इनके हितों की भरपूर पूर्ति भी किया।अब अपरकॉस्ट को अपना सबसे बड़ा हितैषी हिंदुत्वादी लग रहे हैं और वह उनके साथ वह पूरी मुस्तैदी के साथ खड़ा है। अपरकॉस्ट के कुछ मुट्टीभर लोगों के बीच, विशेषकर सचेतन बुद्धिजीवियों के बीच अब गांधी-नेहरू की कद्र रह गई है, जो संख्या में बहुत कम हैं।

गांधी-नेहरू कभी भी बहुजनों (दलितों, पिछड़ों और आदिवासियों) के सहज-स्वाभाविक नायक नहीं रहे हैं, भले ही विभिन्न वजहों से बहुजन उनके साथ खड़े हुए हों और नेहरू के नेतृत्व वाली कांग्रेस पार्टी को वोट भी देते रहे हों। आज भी पिछड़े-दलितों और आदिवासियों के सहज स्वाभाविक नायक जोतीराव फुले, शाहू जी,पेरियार, जगदेव प्रसाद, रामस्वरूप वर्मा, ललई सिंह यादव, बिरसा मुंडा, तिलका मांझी और राष्ट्रव्यापी नायक के रूप में आंबेडकर हैं। आंबेडकर कभी भी द्विज पुरूषों के चहेते नहीं रहे हैं,न आज हैं, न भविष्य में कभी हो सकते हैं।

चूंकि गांधी-नेहरू के कभी अनुयायी रहा अपरकॉस्ट उनका साथ छोड़ चुका और पूरी तरह हिंदुत्वादियों के साथ खड़ा हो गया है, ऐसे में उन पर आक्रामक हमला करना हिंदू राष्ट्रवादियों के लिए आसान हैं। लेकिन आंबेडकर को जो समूह अपना नायक मानता है आज भी उन्हें उतने ही पुरजोर तरीके से उन्हें अपना नायक मानता है, भले ही आंबेडकर का जोर रूप उसे पसंद हो। यह बात बहुजनों, उनमें विशेष तौर दलितों के बारे में पूरी तरह लागू होती है। यदि आज की तारीख में हिंदू राष्ट्रवादी आंबेडकर पर गांधी और नेहरू की तरह आक्रामक और निर्णायक हमला बोल दें, तो बहुजनों का एक बड़ा हिस्सा उनके खिलाफ खड़ा हो जाएगा। यहां तक कि सड़कों पर भी उतर सकता है।

ऐसी स्थिति में हिंदू राष्ट्रवादी आंबेडकर पर निर्णायक हमले के लिए उचित समय का इंतजार कर रहे हैं। यह उचित समय उनके लिए तब होगा, जब वह बहुजनों के एक बडे़ हिस्से का हिंदुत्वीकरण ( कम से कम राजनीतिक तौर पर) करने में सफल हो जाएं। जिसमें उन्हें आंशिक सफलता भी मिली है। वे पहले बडे़ पैमाने पर पिछड़ों का हिंदुत्वीकरण करेंगे और कर रहे हैं। इस प्रक्रिया में वे पिछड़ों को दलितों से अलग करने की कोशिश करेंगे। जिसमें उन्हें एक हद तक सफलता भी मिलती दिख रही है। इस प्रक्रिया में वे बहुजन अवधारणा को तोड़ेंगे। पिछड़ों से दलितों को अलग-थलग करने के बाद वे दलितों को भी अपने साथ खड़ा करने की कोशिश करेंगे। यदि इसमें सफलता नहीं मिली तो, अपरकॉस्ट और पिछड़ों का गठजोड़ बनाकर वे आंबेडकर यानी दलित वैचारिकी पर निर्णायक हमला बोलेंगे। पिछड़ों को अपरकास्ट के साथ जोड़ने का प्रयोग कल्याण सिंह के नेतृत्व में उत्तर प्रदेश से शुरू हुआ था। जिसे नरेंद्र मोदी ( तथाकथित पिछड़े) के नेतृत्व में एक अलग मुकाम तक पहुंचाया जा चुका है।

अंतिम तौर पर आंबेडकर पर हमला बोलने की हिंदू राष्ट्रवादियों की दो रणनीति दिख रही है। पहली नरेंद्र मोदी जैसा या जैसे दलित नेताओं को अपने साथ करके दलितों को हिंदुत्व की राजनीति के लिए पूरी तरह अपने साथ कर लेना और साथ में आंबेडकर का नाम भी लेते रहना। यह भी आंबेडकर पर हमला ही होगा, लेकिन पीठ पीछे से। जिसके कुछ रूप उत्तर प्रदेश बिहार और अन्य जगहों पर दिखाई दे रहे हैं। यदि इसमें सफलता नहीं मिली तो वे अपरकॉस्ट और पिछड़ों का गठजोड़ का इस्तेमाल आंबेडकर पर निर्णायक हमला के लिए करेंगे। क्योंकि पिछड़े यदि दलितों से अलग हो जाते हैं, तो दलित वोटर एक अल्पसंख्यक वोटर बनकर रह जाएगा। दलितों के सहज-स्वाभाविक राजनीतिक दोस्त मुसमलानों को हिंदू राष्ट्रवादी पहले ही राजनीतिक प्रक्रिया से बाहर करने के तरीके निकाल चुके हैं या निकाल रहे हैं। ऐसी स्थिति में वे आंबेडकर पर निर्णायक हमला बोलेंगे। लेकिन यह उनका अंतिम विकल्प होगा। जिसका वे सबसे अंत में ही इस्तेमाल करेंगे। इसका क्या परिणाम होगा यह भविष्य के गर्भ में है।

(सिद्धार्थ रामू स्वतंत्र पत्रकार हैं।)

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