​​​​​​​महाकाल मंदिर के बनने, टूटने और फिर बनने की कहानी: मुस्लिम शासकों ने तोड़ा; धार के राजा ने बनवाया, सिंधिया रियासत ने संवारा

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आनंद निगम (उज्जैन)3 मिनट पहले

देशभर के 12 ज्योतिर्लिंगों में उज्जैन का महाकाल मंदिर अकेला दक्षिणमुखी ज्योतिर्लिंग है। मंदिर आज जैसा दिखता है, पुराने समय में ऐसा नहीं था। 11वीं सदी में गजनी के सेनापति और 13वीं सदी में दिल्ली के शासक इल्तुतमिश के मंदिर ध्वस्त करने के बाद कई राजाओं ने इसका दोबारा निर्माण करवाया।

बता दें कि 11 अक्टूबर को प्रधानमंत्री नरेंद्र मोदी ‘महाकाल लोक’ का लोकार्पण करने उज्जैन आ रहे हैं। वे इसे देश को समर्पित करेंगे। इसके बाद महाकाल लोक को जनता के लिए खोल दिया जाएगा। महाकाल के विस्तारीकरण से मंदिर का क्षेत्रफल 2.8 से बढ़कर 47 हेक्टेयर हो जाएगा। ये काशी विश्वनाथ कॉरिडोर से 9 गुना बड़ा प्रोजेक्ट है।

जानते हैं, कब-कब महाकाल मंदिर का विस्तार हुआ

द्वापर युग से पहले का है मंदिर
संस्कृति और पुरातत्वविद् भगवती लाल राजपुरोहित ने बताया कि मंदिर को मुस्लिम शासकों ने हमला कर तोड़ा, तो कई राजवंशों ने इसका दोबारा निर्माण करवाया। पौराणिक कथाओं के अनुसार महाकाल मंदिर की स्थापना द्वापर युग से पहले की गई थी। जब भगवान श्रीकृष्ण उज्जैन में शिक्षा प्राप्त करने आए, तो उन्होंने महाकाल स्त्रोत का गान किया था। गोस्वामी तुलसी दास ने भी महाकाल मंदिर का उल्लेख किया है। छठी शताब्दी में बुद्धकालीन राजा चंद्रप्रद्योत के समय महाकाल उत्सव हुआ था। इसका मतलब उस दौरान भी महाकाल उत्सव मनाया गया था। इसका उल्लेख बाण भट्ट ने शिलालेख में किया था।

राजा भोज ने निर्माण करवाया
7वीं शताब्दी के बाण भट्‌ट के कादंबिनी में महाकाल मंदिर का विस्तार से वर्णन मिलता है। 11वीं शताब्दी में राजा भोज ने कई मंदिरों का निर्माण करवाया, इनमें महाकाल मंदिर भी शामिल है। उन्होंने महाकाल मंदिर के शिखर को और ऊंचा करवाया था।

महाकाल मंदिर पर कब-कब आक्रमण?
इतिहास पलटकर देखें तो उज्जैन में 1107 से 1728 ई. तक यवनों का शासन था। इनके शासनकाल में 4500 वर्षों की हिंदुओं की प्राचीन धार्मिक परंपराओं-मान्यताओं को खंडित और नष्ट करने का प्रयास किया गया। 11वीं शताब्दी में गजनी के सेनापति ने मंदिर को नुकसान पहुंचाया था। इसके बाद सन् 1234 में दिल्ली के शासक इल्तुतमिश ने महाकाल मंदिर पर हमला कर यहां कत्लेआम किया। उसने मंदिर भी नष्ट किया था। मुस्लिम इतिहासकार ने ही इसका उल्लेख अपनी किताब में किया है। धार के राजा देपालदेव हमला रोकने निकले। वे उज्जैन पहुंचते, इससे पहले ही इल्तुतमिश ने मंदिर तोड़ दिया। इसके बाद देपालदेव ने मंदिर का पुनर्निर्माण करवाया।

…जब राजा सिंधिया का खून खौल उठा
मराठा राजाओं ने मालवा में आक्रमण कर 22 नवंबर 1728 में अपना आधिपत्य स्थापित कर लिया। इसके बाद उज्जैन का खोया हुआ गौरव पुनः लौटा। 1731 से 1809 तक यह नगरी मालवा की राजधानी बनी रही। ​​​​​​मराठों के शासनकाल में उज्जैन में दो महत्वपूर्ण घटनाएं हुईं। इनमें पहली- महाकालेश्वर ज्योतिर्लिंग को पुनः प्रतिष्ठित किया गया। दूसरा- शिप्रा नदी के तट पर सिंहस्थ पर्व कुंभ मेला स्नान की व्यवस्था हुई।

मंदिर का पुनर्निर्माण ग्वालियर के सिंधिया राजवंश के संस्थापक महाराजा राणोजी सिंधिया ने कराया था। बाद में उन्हीं की प्रेरणा पर यहां सिंहस्थ समागम की भी दोबारा शुरुआत कराई गई। इतिहासकारों के मुताबिक, महाकाल के ज्योतिर्लिंग को करीब 500 साल तक मंदिर के भग्नावशेषों में ही पूजा जाता रहा था। मराठा साम्राज्य विस्तार के लिए निकले ग्वालियर-मालवा के तत्कालीन सूबेदार और सिंधिया राजवंश के संस्थापक राणोजी सिंधिया ने जब बंगाल विजय के रास्ते में उज्जैन में पड़ाव किया, तो महाकाल मंदिर की दुर्दशा देख उनका खून खौल गया। उन्होंने यहां अपने अधिकारियों और उज्जैन के कारोबारियों को आदेश दिया कि बंगाल विजय से लौटने तक महाकाल महाराज के लिए भव्य मंदिर बन जाना चाहिए।

राजमाता विजयाराजे सिंधिया ने अपनी आत्मकथा ‘राजपथ से लोकपथ पर’ में लिखा है कि राणोजी अपना संकल्प पूरा कर जब वापस उज्जैन पहुंचे, तो नवनिर्मित मंदिर में उन्होंने महाकाल की पूजा अर्चना की। इसके बाद राणो जी ने ही 500 साल से बंद सिंहस्थ आयोजन को भी दोबारा शुरू कराया।

500 साल तक जलसमाधि में रहे महाराजाधिराज महाकाल
भारत के इतिहास के उस अंधेरे युग में दिल्ली के सुल्तान इल्तुतमिश ने उज्जैन पर आक्रमण के दौरान महाकाल मंदिर को ध्वस्त कर दिया था। उस वक्त पुजारियों ने महाकाल ज्योतिर्लिंग को कुंड में छिपा दिया था। इसके बाद औरंगजेब ने मंदिर के भग्नावशेषों पर मस्जिद बनवा दी थी। मंदिर के पुनर्निर्माण और ज्योतिर्लिंग की पुन: प्राणप्रतिष्ठा कराने से पहले राणोजी सिंधिया ने उस मस्जिद को ध्वस्त करा दिया था।

शुजालपुर में बनी है सिंधिया राजवंश के संस्थापक की समाधि
बंगाल विजय और महाकाल मंदिर की पुनर्प्रतिष्ठा व सिंहस्थ का आयोजन दोबारा शुरू कराने के बाद एक विजय यात्रा से लौटते वक्त राणोजी की मृत्यु शुजालपुर में हो गई थी। उनकी वहीं समाधि बना दी गई। समाधि पर उनकी कीर्तिगाथा भी मराठी में उकेरी गई। राणोजी सिंधिया की समाधि आज भी शुजालपुर में मौजूद है।

राणोजी का निधन शुजालपुर में हुआ था। यहीं उनकी समाधि है।

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