ससुराल वाले पागल कहते थे, बहुओं ने दी जान: तानों से डिप्रेशन में आई; जानें-क्यों जानलेवा बन जाते हैं ऐसे कमेंट्स

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इंदौर4 घंटे पहलेलेखक: संतोष शितोले
कई बार लोग बिना सोचे समझे किसी को बार-बार पागल कहकर या इस तरह के अपमानजनक शब्द बोलकर उसका मजाक उड़ाते हैं। लेकिन वो नहीं जानते कि ऐसा सुन-सुनकर सामने वाला शख्स डिप्रेशन में जा सकता है और अपनी जान भी दे सकता है। ऐसे दो मामले सामने आने के बाद भास्कर ने इंदौर के दो मनोचिकित्सकों से बात करते हुए सुसाइड करने वालों की मानसिकता के बारे में जानने की कोशिश की।
हाल ही में इंदौर और खंडवा की दो बहुओं ने ससुराल वालों की मानसिक प्रताड़ना से तंग आकर जान दे दी। ससुराल वाले उन्हें ये मनवाने पर तुले थे कि वो पागल हैं और उन्हें कुछ आता-जाता नहीं। दोनों ही मामलों में मौत की वजह बार-बार ‘पागल है, पागल है’ कहना रही, जिसके बाद डिप्रेशन में आकर दोनों ने जान दे दी। क्या बार-बार किसी को पागल या अन्य शब्दों से अपमानित करने से व्यक्ति डिप्रेशन में चला जाता है, यदि हां तो क्या इससे बचा नहीं जा सकता था? आखिरी मौत चुनने के बजाय क्या हैं विकल्प, यह बता रहे हैं इंदौर की मशहूर मनोचिकित्सक डॉ. स्मिता अग्रवाल और डॉ. राहुल माथुर…
पहले दोनों मौतों के बारे में जान लीजिए
– दो दिन पहले इंदौर के स्टील कारोबारी मितेश वर्मा की पत्नी संगीता (41) ने आत्महत्या कर ली। मृतका के चाचा ने बताया कि ससुराल पक्ष के लोग उसे पागल-पागल बोलकर मेंटली टॉर्टर करते थे। वे उसे दिनभर में लगभग 100 बार पागल बोलते थे। जिससे वह डिप्रेशन में चली गई थी।

संगीता पति मितेश वर्मा निवासी इंदौर ने 30 सितंबर को बाथरूम में गीजर के पाइप से दुपट्टे का फंदा बांधकर फांसी लगा ली थी। मायकेवालों का कहना है कि ससुरालवाले संगीता को परेशान करते थे।
आंगनबाड़ी कार्यकर्ता ने लिखा- दिमागी हालत ठीक नहीं
एक अन्य मामला खंडवा का है। यहां दिमागी हालत खराब होना बताकर खंडवा की आंगनवाड़ी कार्यकर्ता सपना सेन ने कुएं में कूदकर जान दे दी। उसके भाई का आरोप है कि ससुराल वालों ने उसे इतना प्रताड़ित किया कि वह पागल जैसी हो गई थी। यदि पहले से पागल होती तो आंगनबाड़ी नहीं चलाती, अवॉर्ड कैसे जीतती।

खंडवा में आंगनबाड़ी कार्यकर्ता सपना सेन ने भी 30 सितंबर को कुएं में कूदकर जान दे दी थी। सपना को दो साल पहले 15 अगस्त के दिन जिले की सर्वश्रेष्ठ आंगनबाड़ी कार्यकर्ता का अवॉर्ड मिला था।
Q. किसी को बार-बार पागल या ऐसे अपमानजनक शब्द कहना क्या इतना घातक है, कि दो महिलाओं ने सुसाइड कर लिया?
मनोचिकित्सक- जब किसी को पूरे समय ऐसा जलील किया जाता है और उसे कहीं मान-सम्मान, प्यार नहीं मिले तो लाचारी की फीलिंग आने लग जाती है। सामान्यत: इस तरह के केसेस में संबंधित को कोई मोटिवेशन नहीं मिलता है बल्कि पूरे समय बेइज्जती मिलती है। इससे सेल्फ कॉन्फिडेंस भी खत्म हो जाता है। उसे यह जरूर नहीं लगता कि मैं पागल हूं, लेकिन उसे लगने लगता है कि मुझमें कोई काबिलियत नहीं बची। मैं कुछ कर नहीं सकता/सकती हूं, मैं ऐसा ही रहूंगा/रहूंगी और वह डिप्रेशन में चला जाता/जाती है।
Q. डिप्रेशन में जाने की सबसे बड़ी वजह क्या है?
मनोचिकित्सक- अपमानित किए जाने वाले शख्स की नजर में ऐसा कोई नहीं होता जिससे वो इस बारे में खुलकर बात कर सके। उनके मन में क्या हो रहा होता है, यह किसी को नहीं पता चलता। इसमें से निकलने का कोई रास्ता उसे नजर नहीं आता है। उसे लगता है कि मैं अब इसमें से निकल नहीं सकता/सकती हूं और मेरी पूरी जिंदगी अब यही बची है। इसलिए वह डिप्रेशन में जा सकता है।
Q. ऐसे में परिवार में क्या सावधानी बरतनी चाहिए?
मनोचिकित्सक- परिवार, ससुराल पक्ष को चाहिए कि वे जरा-जरा सी बात को तूल न दें। पुरुष हो, महिला हो या बच्चा हो उसके लिए एक आउटलेट होना चाहिए कि वह भी समस्या को लेकर किसी से खुलकर बात कर सकें। दूसरी बात कि जब कोई बात रिपिट हो तो संबंधित को अपने करीबियों की मदद जरूर लेना चाहिए। वर्ना डिप्रेशन में जाने के चांसेस बढ़ते चले जाएंगे।
Q. फिर भी लोग किसी से ऐसी बातें साझा नहीं करते क्यों?
मनोचिकित्सक- अगर हम किसी बच्चे को भी बार-बार कहें कि तू बेवकूफ है… तू बेवकूफ है… तो उसकी ग्रोथ पर असर होता है। वह मान लेता है कि मैं ऐसा ही हूं। मुझसे कुछ नहीं हो सकता है। ऐसी ही स्थिति बड़ों के साथ भी होती है।
Q. तो फिर संबंधित व्यक्ति, महिला को क्या करना चाहिए?
मनोचिकित्सक- ऐसे लोगों को चाहिए कि वे खुद को परखें कि उनमें कितनी काबिलियत है। मेरे अंदर कितने पॉजिटिव पॉइंट्स हैं। वो खुद देखें और अगर लगे तो किसी रिश्तेदार या खास दोस्त से सपोर्ट लें। काउंसलिंग भी जा सकती है। मनोचिकित्सक से इलाज कराने के साथ मेडिसिन ले सकते हैं।
Q. मनोचिकित्सक से इलाज कराने के मामले में लोग अलग धारणा बना लेते हैं?
मनोचिकित्सक- मानसिक रूप से परेशान या बीमार व्यक्ति को यह नहीं मानना चाहिए कि उसे दी जाने वाली दवाइयां नशे की हैं और जिंदगीभर लेनी ही पड़ेगी। कहीं न कहीं अगर उन्हें रास्ता मिलता है तो ऐसी घटनाएं कम हो सकती है। उसे ट्रेड काउंसलर की मदद लेनी चाहिए।
Q. आत्महत्याओं को और किस तरह से रोका जा सकता है?
मनोचिकित्सक- आत्महत्या या डिप्रेशन के ख्याल आने पर कुछ मिनट शांति से बैठकर सोचा जाए। अपने भरोसेमंद व्यक्ति से बात की जाए। उस समय को किसी भी तरह टाल दिया जाए तो वो आत्मघाती बनाने वाला समय निकल जाता है। वह व्यक्ति अपनों की मदद लें, पॉजिटिविटी दिखाए तो संभव है कि वह गलत कदम नहीं उठाएगा। उसके मन में आत्महत्या के बुरे विचार जो पीक पर थे, वह समय निकलने के बाद उन्हें सही रास्ते पर लाया जा सकता है।
Q. क्या संकेत हैं कि संबंधित आत्महत्या पर उतारू है या गलत कदम उठा लेगा?
मनोचिकित्सक- इस तरह के लोग बातों ही बातों में मरने की इच्छा जाहिर करते रहते हैं। कई बार मौत या उससे संबंधित ही बातें करते हैं। ऐसे में उनके साथ वालों को भी अलर्ट रहना चाहिए, उन्हें बार-बार नजरअंदाज नहीं करना चाहिए। कई बार देखने में आता है कि लोग कहते हैं कि क्या जिंदगी है, मैं जीना नहीं चाहता/चाहती हूं, सबसे अच्छा मरने का तरीका और क्या हो सकता है। ऐसे लोगों को तत्काल पहचान लेना चाहिए। उनकी मदद करना चाहिए, उन्हें सही रास्ता बताकर जान बचाई जा सकती है।
Q. डिप्रेशन वाले व्यक्ति को और किस तरह से उबारा जा सकता है?
मनोचिकित्सक- दरअसल लोगों द्वारा मानसिक बीमारियों की अनदेखी की जाती है। ऐसे लोगों में Stigma (धारणा) है कि वह (जिसे ताने मारते हैं) तो पागल है जबकि ऐसा नहीं है। वह पागल नहीं बल्कि किसी मानसिक बीमारी से पीड़ित हो सकता है, जैसे वह डिप्रेशन में हो सकता है। कुछ लोगों में एंग्जायटी (बेचैनी) होती है जिसे ओसीडी (ओबेसिव कंपलसिव डिसऑर्डर) भी कहते हैं। ऐसे में उन्हें बार-बार पागल कहने से छोटी-छोटी बातों का भी इफेक्ट होता है। वह कठिनाई में है और अगर वह उसमें से निकलता है तो वह बहुत नॉर्मल इंसान होता है। सामान्यत: इसे मेडिकल भाषा में फिलोफोबिया कहते हैं। इसका भी इलाज होता है लेकिन मेडिसिन लेनी पड़ती है।
Q. क्या ऐसे लोगों को जिंदगीभर दवाइयां लेनी पड़ती हैं?
मनोचिकित्सक- इलाज कब तक चलेगा, ये पेशेंट की स्थिति पर निर्भर करता है। कुछेक बीमारियों में जिंदगीभर की दवाइयां लेनी पड़ सकती है। ऐसे में लोगों को यह समझना होगा कि जब ब्लड प्रेशर, डायबिटीज, थाइराइड की दवाइयां जिंदगीभर लेते हैं तो फिर इस तरह की बीमारी मेंभी लेना पड़े और नॉर्मल जिंदगी जी रहे हैं तो क्या दिक्कत है।

मनोचिकित्सक डॉ. स्मिता अग्रवाल और डॉ. राहुल माथुर ने बताया तानों या कमेंट्स के प्रभाव में आने से कैसे बचें।
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…और ये भी कारण मानते हैं मनोचिकित्सक
– जो लोग आत्महत्या जैसे कदम उठाते हैं वे पहले से मानसिक बीमारी से ग्रसित हो सकते हैं।
– कोविड के बाद से यह देखने में आया है कि मानसिक बीमारियां तेजी से बढ़ी हैं। पहले मानसिक बीमारियां कम लोगों में होती थी आजकल बहुत ज्यादा लोगों में होती हैं। कोविड की वजह से हमारे केमिकल साइड इफेक्ट हुए हैं।
– गांव ही नहीं शहर में भी महिलाओं सहित सभी को इसे लेकर Stigma (धारणा) है। 70% लोग किसी न किसी प्रकार की मानसिक बीमारी से ग्रस्त होते हैं। डिप्रेशन, घबराहट होना भी एक प्रकार की मानसिक बीमारी है। लेकिन ये किसी तरह का पागलपन नहीं है। उन्हें सीधे-सीधे पागल कहना बिल्कुल गलत है। इससे बीमार शख्स अपना इलाज नहीं करवाता है और बीमारी बढ़ती जाती है। इन कारणों के चलते आत्महत्याएं की घटनाएं बढ़ रही हैं।
– मानसिक बीमारी व मानसिक स्वास्थ्य को लेकर जागरूकता बढ़ानी चाहिए। अगर अवेयरनेस बढ़ेगी तो ज्यादा से ज्यादा लोग इसका इलाज लेंगे। ज्यादा से ज्यादा लोग ऐसा बोलना बंद कर देंगे। अभी अगर किसी की पैर की हड्टी टूट जाती है तो लोग उसे लंगड़ा कहते हैं। इस स्टिग्मा को खत्म करना होगा।
– बच्चों के साथ भी यह होता है उनकी मानसिकता पर सीधा असर पड़ता है। लोग बोल-बोलकर उसे और बीमार को ट्रिगर कर देते हैं। ऐसे में मानसिक बीमारी जब बहुत ज्यादा तीव्रता पकड़ लेती है तब जाकर व्यक्ति सुसाइड कर लेता है। इसमें में वे लोग जिम्मेदार होते हैं जो संबंधित को मानसिक बीमारी होने की बात बोल-बोलकर उसकी तीव्रता बढ़ा देते हैं।
अगर पागल नहीं बोलते तो बच सकती थी दो जानें
मनोचिकित्सकों के मुताबिक इंदौर और खंडवा में हुए इन केसों में दोनों महिलाओं की जान बचाई सकती थी। ससुरालजन अगर उन्हें पागल नहीं बोलते और उन्हें इलाज के लिए ले जाते तो सुखद परिणाम मिलते। परिवार में आपसी संवाद होना चाहिए और ज्यादा से ज्यादा लोगों को अवेयर करना चाहिए।
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