संत की कहानी..जिन्हें हर साल चढ़ता है 100 क्विंटल घी: संत सिंगाजी मेला आज; जानिए इस घी का क्या होता है…

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सावन राजपूत। खंडवा7 मिनट पहले
कहने को तो वे चरवाहे थे लेकिन सांसारिक जीवन छोड़ संत हो गए। ये कहानी है निमाड़ के संत सिंगाजी की। 462 साल पहले बनी उनकी समाधि पर आज शरद पूर्णिमा पर मेला भर रहा है। उनसे मन्नत मांगने वाले सिर्फ देसी घी चढ़ाते हैं। अगले दो दिन में ही 50 क्विंटल घी यहां स्टॉक हो जाएगा। सालभर मेें 100 क्विंटल तक पहुंच जाता है। जानिए ऐसा क्यों और फिर इस घी का का क्या होता है..
पहले संत को जान लीजिए
बड़वानी जिले के गांव खजूरी में जन्मे सिंगाजी महाराज ने 40 साल की उम्र में खंडवा के पिपलिया गांव में समाधि ली थी। ये समाधिस्थल आज 3 ओर से इंदिरा सागर डैम के बैक वाटर से घिरा हुआ है। डैम बनते समय समाधि डूब में जा रही थी। श्रद्धालुओं की मांग पर तत्कालीन दिग्विजय सिंह सरकार ने यहां टापू बनाकर समाधिस्थल को सुरक्षित किया था। सिंगाजी खुद बचपन से ही भैंसें पाला करते थे।
मालवा-निमाड़ में मशहूर सिंगाजी महाराज संत कबीर के समकालीन संत थे। उन्हें 16वीं शताब्दी के महान कवियों और समाज सुधारकों में माना जाता है। उन्होंने अपने जीवनकाल में गृहस्थ होकर भी निर्गुण उपासना की। वे पढ़-लिख नहीं सकते थे, लेकिन फिर भी भक्ति के आवेश में जो पद बनाकर वे जनता के बीच गाते थे, उनके अनुयायी उन्हें लिख लेते थे। उनके पदों को आज भी मालवा क्षेत्र में बड़े ही भक्तिभाव से गाया जाता है। ऐसे पदों की संख्या लगभग 800 से भी अधिक बताई जाती है।
उनसे मन्नत मांगने वाले ज्यादातर भक्त पशुपालक होते हैं। वे अपने मवेशियों के गुम होने, दूध न देने या फिर बीमार पड़ने पर संत से मन्नत मांगते हैं।

वो घटना, जिसने बदल दिए जीवन के मायने…
सिंगाजी की प्रतिभा से प्रेरित होकर गांव के जमींदार ने उन्हें अपना सरदार नियुक्त कर दिया था। 12 साल जमींदार की सेवा की। बाद में भामागढ़ के राजा के पत्रवाहक का काम भी किया। एक दिन वे घोड़े पर सवार होकर राजा के काम से कहीं जा रहे थे। रास्ते में गुरु मनरंग स्वामी के प्रवचन सुनने बैठ गए। प्रभावित होकर उसी समय महात्मा से अनुरोध किया कि वे उन्हें अपना शिष्य बना लें, लेकिन महात्मा ने कहा कि तुम गृहस्थ जीवन जी रहे हो, इसलिए तुम अपने उस धर्म का पालन करो। फिर भी, अगर तुम इसे अपनाना चाहते हो, तो सबसे पहले तुम्हें मोह-माया का त्याग करना पड़ेगा। इसके बाद सिंगाजी ने उसी समय राजा की नौकरी छोड़कर संन्यास लेने का मन बना लिया। सिंगाजी को रोकने के लिए राजा ने वेतन बढ़ाने का ऑफर भी दिया, लेकिन ये लुभावना ऑफर भी उन्हें नहीं रोक सका। उन्होंने गुरु मनरंग स्वामी जी से दीक्षा ले ली। 40 साल की उम्र में ही उन्होंने समाधि ले ली।

मंदिर में चढ़ाए गए घी का क्या इस्तेमाल होता है…
यहां के ट्रस्ट से जुड़े लोग बताते हैं कि संत काे पशुधन से बड़ा प्रेम था। जब मन्नत का सिलसिला शुरू हुआ तो स्टॉक करना ही बड़ी चुनौती बन गई। लोग जब भी पशु बीमार पड़ता तो यहां की मन्नत लेते। अगले दो दिन में मेले में यहां 50 से 70 क्विंटल तक घी जमा होगा। वे बताते हैं कि न तो ये घी बेचा जाता है, न बाहर भेजते हैं। यहां रोजाना 11 से 3 बजे तक दाल-बाफला बनता है। उन्हीं में यह घी इस्तेमाल होता है। पूरे साल 10 से 12 क्विंटल घी स्टॉक रहता है। सालभर भंडारे होते हैं।
लोग यहां संतान सुख की मन्नत भी मांगते हैं
मंदिर के महंत रतनलाल महाराज बताते हैं कि श्रद्धालु संत सिंगाजी महाराज से मवेशियों के सुखी, सुरक्षित रहने के साथ ही संतान सुख की मन्नतें भी मांगते हैं। झाबुआ राजघराने के राजा नरेंद्र सिंह ने संतान सुख के लिए यहां मन्नत मांगी थी। उनकी मन्नत पूरी हुई, तब से उनके वंशज आज भी पैदल निशान लेकर यहां आते हैं। संत सिंगाजी के दरबार में सबसे पहला निशान झाबुआ राजघराने का ही चढ़ता है।

ऐसे पहुंचा जा सकता है सिंगाजी धाम…
जब उनका समाधि स्थल डैम के बैक वाटर में डूबा तो सरकार को फैसला बदलना पड़ा। यहां 100 एकड़ में प्रदेश का पहला मानव निर्मित टापू बनाया गया। संत सिंगाजी समाधि स्थल खंडवा से 50 किलोमीटर दूर है। खंडवा पहुंचने के लिए कई ट्रेन मिल जाएंगी। यहां से बस या लोकल ट्रेन से बीड़ जाना होगा। बीड़ खंडवा से 40 किलोमीटर दूर है। बीड़ से समाधि स्थल तक के लिए ऑटो चलते हैं।
ओंकारेश्वर ज्योतिर्लिंग से इसकी दूरी 72 किलोमीटर है। ओंकारेश्वर से सनावद होकर मूंदी से यहां पहुंचा सकता है। खंडवा से बाइक या कार से जाना हो तो खंडवा से पुनासा रोड पर ही 16 किलोमीटर की दूरी पर जावर ग्राम है। जावर से सहेजला, वहां से गोराडिया गांव होते हुए बीड़ जाया जा सकता है। मूंदी के रास्ते इस रूट पर चलने से 10 किलोमीटर की दूरी कम हो जाती है।
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